Saturday, September 24, 2016

एक और जनम

स्वपन से बंधा हुआ
बढ़ चला तना हुआ
प्रवाह को न देखता
जाने क्या-क्या सोचता
वक्त यूं फिसल गया
हाथ से निकल गया
पर बने रहे भरम।
लो चला इक उर जनम।।

आस की जकड़ रही
बस, व्यक्त की पकड़ रही
दृश्य के अवभास में
अनकही इस प्यास में
अव्यक्त ओझल ही रहा
मानस ये बेकल ही रहा
न कट सके किंचित करम।
लो चला इक उर जनम।।

प्रेम की डगर मिली
संबंध की भंंवर मिली
'रस सिंधु' जिसे मैं समझ
लो गया उसमें उलझ
कल्पना के लोक में
झूठे हरष और शोक में
करता रहा यूं ही भ्रमण।
लो चला इक उर जनम।।

मोह की सुरा जो ली
टूटती शिरा रही
यूं नजर के सामने
जिसको चला मैं थामने
न वो झुक सका
न रुक सका
टूटती गई शरम।
लो चला इक उर जनम।।

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